रविवार, 30 अप्रैल 2017

राठौड़ वंश की कुलदेवी नागणेची माताजी

नागणेची माता



 

एक बार बचपन में राव धुहड जी ननिहाल गए , तो वहां उन्होने अपने मामा का बहुत बडा पेट देखा ।

बेडोल पेट देखकर वे अपनी हँसी रोक नही पाएं ।

और जोर जोर से हस पडे ।
तब उनके मामा को गुस्सा आ गया और उन्होने राव धुहडजी से कहा की सुन भांनजे । तुम तो मेरा बडा पेट देखकर हँस रहे हो 
किन्तु तुम्हारे परिवार को बिना कुलदेवी देखकर सारी दुनिया हंसती है 
तुम्हारे दादाजी तो कुलदेवी की मूर्ति भी साथ लेकर नही आ सके 
तभी तो तुम्हारा कही स्थाई ठोड-ठिकाना नही बन पा रहा है 
मामा के ये कडवे बोल राव धुहडजी के ह्रदय में चुभ गये 
उन्होने उसी समय मन ही मन निश्चय किया की मैं अपनी कूलदेवी की मूर्ति अवश्य लाऊगां ।
और वे अपने पिताजी राव आस्थानजी के पास खेड लोट आए 
किन्तु बाल धुहडजी को यह पता नही था कि कुलदेवी कौन है 
उनकी मूर्ति कहा है ।और वह केसे लाई जा सकती है ।
आखिर कार उन्होने सोचा की क्यो न तपस्या करके देवी को प्रसन्न करूं ।
वे प्रगट हो कर मुझे सब कुछ बता देगी ।
और एक दिन बालक राव धुहडजी चुपचाप घर से निकल गये ।और जंगल मे जा पहुंचे ।
वहा अन्नजल त्याग कर तपस्या करने लगे ।
बालहट के कारण आखिर देवी का ह्रदय पसीजा ।
उन्हे तपस्या करते देख देवी प्रकट हुई ।
तब बालक राव धुहडजी ने देवी को आप बीती बताकर कहा की हे माता ! मेरी कुलदेवी कौन है ।और उनकी मूर्ति कहा है ।
और वह केसे लाई जा सकती है ।
देवी ने स्नेह पूर्वक उनसे कहा की सून बालक !
तुम्हारी कुलदेवी का नाम चक्रेश्वरी है ।और उनकी मूर्ति कन्नौज मे है ।
तुम अभी छोटे हो ,बडे होने पर जा पाओगें ।
तुम्हारी आस्था देखकर मेरा यही कहना है । की एक दिन अवश्य तुम ही उसे लेकर आओगे ।
किन्तु तुम्हे प्रतीक्षा करनी होगी ।
कलांतर में राव आस्थानजी का सवर्गवास हुआ ।
और राव धुहडजी खेड के शासक बनें ।तब एक दिन !
राजपूरोहित पीथडजी को साथ लेकर राव धूहडजी कन्नौज रवाना हुए ।
कन्नौज में उन्हें गुरू लुंम्ब रिषि मिले ।
उन्होने उन्हे माता चक्रेश्वरी की मूर्ति के दर्शन कराएं और कहा की यही तुम्हारी कुलदेवी है ।
इसे तुम अपने साथ ले जा सकते हो ।
जब राव धुहडजी ने कुलदेवी की मूर्ति को विधिवत् साथ लेने का उपक्रम किया तो अचानक कुलदेवी की वाणी गुंजी - ठहरो पूत्र ! 
में ऐसे तुम्हारे साथ नही चलूंगी ! में पंखिनी ( पक्षिनी )
के रूप में तुम्हारे साथ चलूंगी 
तब राव धुहडजी ने कहा हे माँ मुझे विश्वास केसे होगा की आप मेरे साथ चल रही है ।तब माँ कुलदेवी ने कहा जब तक तुम्हें पंखिणी के रूप में तुम्हारे साथ चलती दिखूं तुम यह समझना की तुम्हारी कुलदेवी तुम्हारे साथ है ।
लेकिन एक बात का ध्यान रहे , बीच में कही रूकना मत ।
राव धुहडजी ने कुलदेवी का आदेश मान कर वैसे ही किया ।राव धुहडजी कन्नौज से रवाना होकर नागाणा ( आत्मरक्षा ) पर्वत के पास पहुंचते पहुंचते थक चुके थे ।तब विश्राम के लिए एक नीम के नीचे तनिक रूके ।अत्यधिक थकावट के कारण उन्हें वहा नीदं आ गई ।जब आँख खुली तो देखा की पंखिनी नीम वृक्ष पर बैठी है ।
राव धुहडजी हडबडाकर उठें और आगे चलने को तैयार हुए तो कुलदेवी बोली पुत्र , मैनें पहले ही कहा था कि जहां तुम रूकोगें वही मैं भी रूक जाऊंगी और फिर आगे नही चलूंगी ।अब मैं आगे नही चलूंगी ।
तब राव धूहडजी ने कहा की हें माँ अब मेरे लिए क्या आदेश है ।कुलदेवी बोली की तुम ऐसा करना की कल सुबह सवा प्रहर दिन चढने से पहले - पहले अपना घोडा जहाॅ तक संभव हो वहा तक घुमाना यही क्षैत्र अब मेरा ओरण होगा और यहां मै मूर्ति रूप में प्रकट होऊंगी ।
तब राव धुहडजी ने पूछा की
हे माँ इस बात का पता कैसे चलेगा की आप प्रकट हो चूकी है । तब कुलदेवी ने कहा कि पर्वत पर जोरदार गर्जना होगी बिजलियां चमकेगी और पर्वत से पत्थर दूर दूर तक गिरने लगेंगे उस समय । मैं मूर्ति रूप में प्रकट होऊंगी ।
किन्तु एक बात का ध्यान रहे , मैं जब प्रकट होऊंगी तब तुम ग्वालिये से कह देना कि वह गायों को हाक न करे , अन्यथा मेरी मूर्ति प्रकट होते होते रूक जाएगी ।
अगले दिन सुबह जल्दी उठकर राव धुहडजी ने माता के कहने के अनुसार अपना घोडा चारों दिशाओं में दौडाया और वहां के ग्वालिये से कहा की गायों को रोकने के लिए आवाज मत करना , चुप रहना , तुम्हारी गाये जहां भी जाएगी ,मै वहां से लाकर दूंगा ।
कुछ ही समय बाद अचानक पर्वत पर जोरदार गर्जना होने लगी , बिजलियां चमकने लगी और ऐसा लगने लगा जैसे प्रलय मचने वाला हो ।
डर के मारे ग्वालिये की गाय इधर - उधर भागने लगी ग्वालियां भी कापने लगा ।
इसके साथ ही भूमि से कुलदेवी की मूर्ति प्रकट होने लगी । तभी स्वभाव वश ग्वालिये के मुह से गायों को रोकने के लिए हाक की आवाज निकल गई । बस, ग्वालिये के मुह से आवाज निकलनी थी की प्रकट होती होती मुर्ति वही थम गई ।
केवल कटि तक ही भूमि से मूर्ति बाहर आ सकी ।देवी का वचन था । वह भला असत्य कैसे होता । 
राव धुहडजी ने होनी को नमस्कार किया । और उसी अर्ध प्रकट मूर्ति के लिए सन् 1305, माघ वदी दशम सवत् 1362 ई. में मन्दिर का निर्माण करवाया ,क्योकि " चक्रेश्वरी " नागाणा में मूर्ति रूप में प्रकटी , 
अतः वह चारों और " नागणेची " रूप में प्रसिध्ध हुई । 
इस प्रकार मारवाड में राठौडों की कुलदेवी नागणेची कहलाई ।




बुधवार, 25 जनवरी 2017

श्री चामुंडा माताजी ( मेहरानगढ़, जोधपुर )

पड़ियारों की कुलदेवी और राठौड़ो की इष्ट देवी- चामुंडा माता ( मेहरानगढ़ )

राव जोधा तो जोधपुर बसा कर और मेहरानगढ़ जैसा दुर्ग बना कर अमर हो गए परन्तु मारवाड़ की रक्षा करने वाली पड़ियारों की कुलदेवी को अपनी इष्ट देवी के रूप में स्वीकार करके संपूर्ण सुरक्षा का भार माँ चामुंडा को सौप गये। राव जोधा ने वि.सं. 1517 ( ई. 1460 ) में मंडोर से चामुंडा माताजी की मूर्ती को मंगवा कर जोधपुर किले में स्थापित किया।
इस संबंध में जोधपुर की दस्तूर बही में भी उल्लेख मिलता हैं-- " श्री चावूंडा देवी रो थान, चावुन्डा बुर्ज ऊपर आगे तो राव जोधे करायो तो।
मंडोर के पूर्व शासक परिहार राज्य एवं शासन का भार राव चूंडा को सुपुर्द करके निश्चित होकर चले गए। रॉलव जोधा ने माँ चामुंडा की चमत्कारी मूर्ती के जब दर्शन किए तो मारवाड़ की मातेश्वरी को दुर्ग के शीर्ष पर स्थापित किया और मारवाड़ की सुरक्षा का जिम्मा भी माँ ने अपने कंधों पर 550 वर्षों से संभाल रखा हैं-

गढ़ जोधाणे उपरे, बैठी पंख पसार |
अम्बा थारों आसरों, तूँ हिज हैं रखवार ||
चावण्ड थारी गोद में, खेल राह्यों जोधाण |
तूँ हिज निगे राखजें, थारा टाबर जाण ||

जोधपुर दुर्ग स्थित श्री चामुंडा माताजी का प्राचीन मंदिर वि.संवत 1517 में राव जोधाजी के समय बुर्ज पर बना था।
चामुंडाजी मूलतः प्रतिहारों की कुलदेवी थी राठौड़ो की कुलदेवी श्री नागणेच्या माताजी हैं और राव जोधाजी ने चामुंडा माताजी को अपनी इष्ट देवी के रूप में स्वीकार करके किले में स्थापित किया। इस संबन्ध में बही में संदर्भ मिलता हैं।
" माताजी श्री चावूंडा जी री थापना रो वर तो राव चूंडा जी ने हुवो थो पहला पड़िहारां रे कुलदेवी था, सूं रावजी श्री जोधाजी गढ़ करायो तरै इण बुर्ज में थापना करी थी, पुजारी पिरोयत सेवड़ ठेठ सूं चावंडिया । पछे महाराजा अजीतसिंह जी मिंदर करायो मूरत परदाई पुजारी सेवड़ हिज था ने पोकरण ब्राह्मण। जोशी टोरसिया रुंगा ने भोळावण दिवी थी टको एक जोधपुर में सायर ( कस्टम विभाग ) मायसु हमेश पावे ने पुजारी सेवड़ हीज था।

इसी बही में जानकारी मिलती हैं कि माताजी कालकाजी नीचे कोठार में विराजमान थे और महाराजा विजयसिंह जी के समय में पुजारी पुरबिया माईलाल था और महाराजा मानसिंह जी के समय जो दुर्ग घेराव हुआ था उस माईलाल के बेटे से कालका माताजी की सेवा छूट गई और पुजारी दुसरा हुआ। वि.संवत 1914 भाद्रपद कृष्ण पाँचम ( 9 अगस्त, 1857 ) को दुर्ग स्थित गोपाल पोल के पास भाटी गोविन्ददास की हवेली के निकट बिजली पड़ी, जिससे बारूद का कोठार ( जिसमे 80 हजार मण बारूद था ) में विस्फोट हुआ, जिससे राव जोधा कालीन निर्मित मंदिर क्षत-विक्षत हो गया परन्तुं मूर्ती अपने स्थान पर ही सुरक्षित रही। इस भयंकर विस्फोट में बोड़ो की घाटी, पचेटिया के ऊपर के घर, लाल कोटड़ी इत्यादि के पास के घर धराशायी हो गये। विस्फोट के पत्थर चौपासनी तक गये। किले में विभिन्न पोलो में लगभग 100 आदमी दब गये। पोकरणा ब्राह्मणों के घर में 10 आदमी थे जिसमें 9 दब कर मर गये। इस तबाही में लगभग 300 आदमी मारे गये थे। इतने आदमियों के दाह संस्कार के लिए लकड़ियाँ नही मिल रही थी। तब चांदपोल के बाहर पड़ी चुंगी की लकड़ियाँ कोतवाल शेरकरण ने उपलब्ध कराई और उस रात महाराजा तख्तसिंह जी के हुकम से रात के डेढ़ पहर के तोप को नही छोड़ा गया था। शहर के ज्योतिषियों के कहने पर महाराज तख्तसिंह जी ने एक लाख रुपए खर्च कर के शांति हवन करवाया। अग्निहोत्री जगनेश्वर एवं जोशी व्यास बाल मुकुंद ने शास्त्रों के अनुसार शान्ति हवन करना आवश्यक बतायां।
तत्पश्चात महाराजा तख्तसिंह जी ने वि.संवत 1914 सूद आठम वैशाख श्री चामुंडाजी का नया मंदिर बनवाया, इसका संदर्भ इस प्रकार से ख्यात में उपलब्ध हैं-
" श्री चावंडाजी रो मिंदर नवो हुवो तिणरे निज मंदिर रो छाबणो चढियों।"
5 अक्टूबर, 1997 प्रातः सवा नौ बजे अचानक चिड़ियानाथ जी की धूणी के पास बने पुराने कोठार में विस्फोट हुआ जिसमें श्री गनपतलाल और उनकी 10 वर्षीय दोहिती मारे गये। उक्त कोठार कभी बारूद का रहा होगा और जैसे ही गणपतलाल ने बीड़ी जलाने हेतुं माचिस की तीली जलाई वहां विस्फोट हो गया।
प्रत्येक वर्ष भादवा सूद तेरस को श्री चामुंडा माताजी के मंदिर का जीर्णोद्धार दिवस मनाया जाता हैं। उस दिन शिखर पर नई ध्वजा, माताजी के लिए नई पोशाक एवं मुहूर्त पर मंदिर में सफेदी की जाती हैं। पुजारी को पीताम्बर, बगल वंदी और पाग भेंट की जाती हैं। नवरात्रि के प्रारम्भ से 11 पंडित सत्वर्ति का पाठ, जप पूजा एवं अर्चना करते हैं। अष्टमी को सम्पूर्ण स्वच्छता के बाद हवन प्रारम्भ किया जाता हैं और सारी रात विद्वान् पंडित हवन में जौ, तिल, घृत इत्यादि की आहुति देते हैं और पूर्ण आहुति महाराज अपने हाथों से नवमी को प्रातः मुहूर्त के अनुसार उपस्थित होकर देते हैं। नवरात्रि की एकम एवं नवमी को जोधपुर राज परिवार पारंपरिक राजसी पौशाक में माँ चामुंडा की हाजरी में रहते हैं और अपने हाथ से पुष्प माला, प्रसाद माँ को अर्पित कर आरती करते हैं। महाराजा स्वयं अपने हाथों से वहां उपस्थित दर्शनार्थियों को प्रसाद वितरित करते हैं।
जब राव जोधा ने यह मंदिर बनवाया था तब जोधपुर की जनसंख्या नगण्य थी। आज लगभग 15 लाख के आंकड़े को छू रही हैं। मंदिर में दर्शनार्थियों के लिए स्थान कम पड़ने लगा इसलिए वर्तमान महाराजा गजसिंह जी ने सन 1993 को मंदिर चौक से एक नया ढलान बनवाया जिससे दर्शनार्थियों के मंदिर में आने तथा जाने के मार्ग पृथक पृथक हो गए। इस पक्के ढलान का उद्घाटन श्री जी ने दिनांक 16 अक्टूबर, 1993 शनिवार प्रातः 10 बजे मुहूर्त से किया। उस दिन भी नवरात्रि की एकम ही थी उन्होंने बड़ी सादगी से नारियल वडा करके ढलान को आम जनता के लिए खोला और उसके पश्चात अपने मातुश्री राजमाताजी के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद प्राप्त किया।
प्रत्येक नवरात्रि पर पूरे मंदिर की सफाई व् पुताई होती हैं । माँ के लिए नवीन पौशाक एवं नवीन ध्वजा चढ़ाई जाती हैं। नो दिन तक माँ चामुंडा के भक्त नव चंडी का पाठ करते हैं तथा 11 पंडितों के लिए एक समय भोजन की व्यवस्था की जाती हैं। शहर के लोग अपनी आस्था एवं मनोती के लिए यहां दूर-दूर से आते हैं। मनोती के प्रतीक स्वरूप मर्द लोग अपनी आस्था दर्शाने हेतुं रुमाल एवं स्त्रियां अपनी मनोकामना पूर्ण हेतु अपनी चोटी का फीता, डोरा वहां त्रिशूल को बांधती हैं। वापिस जाते समय अभी नर, नारी बच्चे रास्ते में पत्थरों के छोटे छोटे घर ( महल मालिया ) बनाते हैं ताकि अगले जन्म में उन्हें भी विशाल महल रहने के लिए मिले, ऐसी उनकी आस्था होती हैं महाराजा अजीतसिंह जी ने भी चामुंडा माताजी के मंदिर की मरम्मत कराई थी।
माँ चामुंडा के मंदिर में महालक्ष्मी, महासरस्वती और बेछराज जी की मूर्तियां भी निज मंदिर में हैं माताजी श्री बेछराज जी को महाराजा तख़्त सिंह जी अहमदनगर से लेकर पधारे थे और उनके समय में बेछराज जी मोती महल में स्थापित थे।
👉 चामुंडा गाँव की चामुंडा देवी :-
सूर्यवंश से ताल्लुक रखने वाला इंदावंश कुलदेवी के रूप में चामुंडा माता एवं वरदेवी जे रूप में गाजन माता को पूजते हैं। पुराणों से ज्ञात होता हैं कि भगवती दुर्गा का सांतवा अवतार कालिका हैं इसने दैत्य शुम्भ निशुम्भ सेनापति चण्ड और मुंड का नाश किया था तब से कालिका चामुंडा के नाम से प्रसिद्ध हुई यह भगवती दुर्गा का आठवा अवतार हैं इसलिए माँ चामुंडा को अष्टमात्रिका, अरण्यवासिनी गाजन तथा अम्बरोहिया भी कहाँ जाता हैं। पड़ियार नाहड़राव गाजन माता के परम् भक्त थे वही इनके वंशज पड़ियार खाखु कुलदेवी के रूप में चामुंडा माता की आराधना करते थे। पड़ियार वंशजो का चामुंडा देवी के साथ सम्बन्ध पर सर्व प्रथम सटीक प्रकाश पड़ियार खाखु से मिलता हैं। पड़ियार खाखु चामुंडा माता की पूजा अर्चना करने चामुंडा गाँव आते जाते थे जो कि जोधपुर से 30 कि. मि. की दुरी पर हैं। घँटियाला जहाँ पड़ियार खाखु का निवास स्थान था जो चामुंडा गाँव से 4 किलोमीटर की दुरी पर हैं।
चामुंडा माता का मंदिर चामुंडा गाँव की ऊँची पहाड़ी पर स्थित हैं जिसका मुख्य घटियाला की ओर ही हैं। इस मंदिर में प्रतिष्ठापित चामुंडा माता की प्रतिमा स्वतः प्रकट हैं। प्रतिमा के ऊपर छत्र सुशोभित हैं। चट्टान में से स्वतः प्रकट हुई चामुंडा माता की शीलारूपी प्रतिमा ऐसे दिखाई पड़ती हैं जैसे वह अपने पाँव पर खड़ी होकर अपने भक्तों को निहार रही हो उन्हें आशीर्वाद दे रही हो। मंदिर के अग्रभाग में यज्ञ कुंड बना हुआ हैं। मंदिर परिसर का परिक्रमा स्थल अद्भुत हैं। यहाँ के पुजारी पुरोहित हैं। ऐसी लोक मान्यता हैं कि देवी खाखु जी के सशरीर रूबरू होती थी। एक समय पड़ियार खाखुजी अपने गाँव घटियाला में विशाल यज्ञ करने के निमित्त देवी के दर्शन चामुंडा गाँव पहुँचा।
वहां पहुचकर उसने देवी से यज्ञ में आने की प्रार्थना की जिसे देवी ने स्वीकार कर उसका मान बढ़ाया। यज्ञ के दिन देवी के सुबह तक बड़ी देर से पहुँचने पर खाखु ने अभिमान स्वरुप उनसे प्रश्न कर कहाँ कि इतनी देर से क्यों आई। इस पर माँ चामुंडा ने उसे कहाँ कि वत्स मैं अमूक मेघवाल के यहां रूक गई थी वहां देर होने से विलम्ब से पहुँची पड़ियार खाखु देवी का कथन सुन धैर्य खो बैठा और चामुंडा माता पर तलवार से वार कर दिया, वार माँ चामुंडा को तो नही लगा लेकिन पास ही स्थित पहाड़ी पर लगने से वह दो भागों में विभक्त हो गई। दो भागों में विभक्त होने से इसका भी ऐतिहासिक महत्व इस रूप में बढ़ गया कि मंदिर के बाहर परिक्रमा करने हेतुं फिरनी तैयार हो गई। खाखु पड़ियार अभायक का पुत्र था।
ऐसी मान्यता हैं कि पड़ियार खाखु देवी के प्रति असीम भक्ति भाव रखने के परिणामस्वरूप एक वरदान भी मिला था कि तलवार म्यान से बाहर निकालने पर किसी पर सफल वार करके ही पुनः म्यान में जाएगी ।
जोधपुर राज्य के संस्थापक राव जोधा के पितामह राव चूंडा का संबंध भी चामुंडा देवी से रहा हैं। जोधपुर राज्य की स्थापना से पूर्व राव चूंडा के पिता जोहियों से लड़ते हुए काम आए, इस पर अपनी माता मांगलियाणी की इच्छानुसार गुप्त रूप से कालाऊ गाँव में आल्हा चारण के पास रहे कुछ समय पश्चात आल्हा चारण ने इन्हें इनके चाचा रावल मल्लीनाथ के पास पहुँचा दिया। वहां चूंडा ने रावल मल्लीनाथ के प्रधान भोवा नाई का मन जीत लिया और उसकी सिफारिश पर उन्हें सालोड़ी थाना मिल गया । यहाँ रहते हुए उसने अपनी ताकत काफी बढ़ा ली   सालोड़ी से महज 5 कि. मी. की दुरी पर स्थित चामुंडा गाँव हैं वहां के मंदिर में देवी के दर्शन करने चूंडा आता था वह भी देवी का परम भक्त था । ऐसी लोकमान्यता हैं कि जब चूंडा गहरी निंद्रा में सो रहा था तब स्वप्न में देवी ने उसे कहाँ कि अगली सुबह घोड़ो का काफिला बाड़ी से होकर निकलेगा । घोड़ो की पीठ पर सोने की ईंटे लदी होगी वह तेरे भाग्य में ही है। प्रातः काल ऐसा ही हुआ उसने बंजारे सरदार को मारकर सोने की ईंटे हस्तगत करली। उचियाड़े कुँए पर बंजारे सरदार की मजार आज भी स्थित हैं। खजाना एवं घोड़े मिल जाने पर उसकी शक्ति में बढ़ोतरी हुई। आगे चलकर इंदा राणा उगमसी की पौत्री का विवाह चूंडा के साथ हो जाने पर दहेज़ में मंडोर का किला भी प्राप्त हो गया। इसके पश्चात राव चूंडा ने अपनी इष्टदेवी चामुंडा का मंदिर बनवाया। यहां यह तथ्य उल्लेखनीय हैं कि देवी के प्रतिष्ठा तो पड़ियारों जे समय हो चुकी थी अनन्तर चूंडा ने उस स्थान पर मंदिर का निर्माण करवाया था। मंदिर के पास वि.सं. 1451 का लेख भी मिलता हैं।
अनन्तर राव जोधा के समय पड़ियारों की कुलदेवी माँ चामुंडा की प्रतिमा जो कि मंडोर में भी स्थित थी उसे जोधपुर किले में स्थापित कराई गई।
इंदावाटी में बालेसर स्थित चामुंडा माता का मंदिर, बस्तवा में गोताबर राय चामुंडा माता मंदिर, बेलवा का गाजन मत का मंदिर, भालू स्थित खांडादेवल काफी प्रसिद्ध रहे हैं। मंडोर स्थित पड़ियार नाहड़राव का स्मारक उनके सिद्ध पुरुष होने का अहसास कराता हैं।
जसवंत पूरा स्थित सुंधा माता अर्थात चामुंडा माता का मंदिर भी विख्यात हैं।

🙏 चित्तौड़गढ़ री राय, सदा सेवक सहाय 🙏�
              -: नर्वाण मन्त्र :-
        ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विचै

भावार्थ:- हे चित्स्वरूपिणी महा सरस्वती! हे सदरूपिणी महालक्ष्मी! हे आनन्द रूपिणी महाकाली! ब्रह्मविधा पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी महा सरस्वती स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार हैं । अविधारूप रज्जू की दृढ़ ग्रन्थि को खोलकर मुझे मुक्त करों।

(1)मित्रों गाजन माता, सुंधा माता ये एक ही है और ये चामुण्डा देवी ही है।।

(2) प्रतिहारों की कुलदेवी चामुण्डा देवी की सबसे प्राचीन मूर्ति जो प्रतिहारों के मण्डौर किले में थी उसे राठौड राव जोधा जी ने अपने इष्ट देवी के रुप में पूजकर जोधपुर के मेहरानगढ़ किले मे स्थापित की है। आज भी इनकी पूजा किले में प्रतिदिन होती है।।

(3) मां चामुंडा देवी जी का दूसरा स्वरुप गाजन माता पाली से 15 किलोमीटर चौटीला के पास धर्मधारी गांव मे है इस गांव की स्थापना 1010 ईस्वीं में प्रतिहार शासक ने की थी फिर ये गांव पुरोहितों को दान मे दिया था इसी गांव के वही पुरोहितों के वंशज  चामुंडा गाजन माता जी के पुजारी है  यह मन्दिर पहाडी पे मा गाजणा गुफा मे  विराजमान है।।

(4) प्रतिहारों की ही एक शाखा देवल चामुण्डा देवी जी के दूसरे स्वरुप सुंधा माता को पूजते है सुंधा माता जी का प्राचीन पावन तीर्थ राजस्थान प्रदेश के जालौर जिले की भीनमाल तहसील की जसवंतपुरा पंचायत में सुंधा पर्वत पर है यह २४ मील रानीवाडा से १४ मील और जसवंतपुरा से ८ मील दूर है । सुंधा पर्वत की रमणीक एवं सुरम्य घाटी में सांगी नदी से लगभग ४०-४५ फीट ऊँची एक प्राचीन सुरंग से जुडी गुफा में अष्टेश्वरी माँ चामुण्डा देवी जी का पुनीत धाम युगो युगो से सुसोभित है , इस सुगंधगिरी अथवा सौगंधिक पर्वत के नाम से ही लोक में चामुण्डा देवी को लोग सुंधा माता के नाम से पुकारने लगे।

जय माँ बायण
जय माँ चामुंडा

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बुधवार, 18 जनवरी 2017

तंवर वंश की कुलदेवी चिलाय माताजी

तँवर वँश की कुलदेवी चिलाय माताजी

तु संगती तंवरा तणी चावी मात चिलाय!
म्हैर करी अत मातथूं दिल्ली राज दिलाय!!
तँवर वँश की कुलदेवी चिलाय माता है। इतिहास में तँवरो की कुलदेवी के अनेक नाम मिलते हैं जैसे चिलाय माता, जोग माया (योग माया), योगेश्वरी (जोगेश्वरी), सरूण्ड माता, मन्सादेवी आदि।
दिल्ली के इतिहास में तँवरो की कुलदेवी का नाम योग माया मिलता है, तंवरो के पुर्वज पांडवो ने भगवान कृष्ण की बहन को कुलदेवी मानकर इन्द्रप्रस्थ में कुलदेवी का मंदिर बनवाया और उसी स्थान पर दिल्ली के संस्थापक राजा अनंगपाल प्रथम ने पुनः योगमाया के मंदिर का निर्माण करवाया।
इसी मंदिर के कारण तवरो की राजधानी को योगिनीपुर भी कहा गया, जो महरौली के पास स्थित है।
तोमरों की अन्य शाखा और ग्वालियर के इतिहास में तँवरो की कुलदेवी का नाम योगेश्वरी ओर जोगेश्वरी भी मिलता है। एसा माना जाता है कि योगमाया( जोग माया) को ही बाद में योगेश्वरी, जोगेश्वरी बोलने लग गये।
तोरावाटी के तंवर कुलदेवी के रूप में सरूण्ड माता को पुजते है।पाटन के इतिहास मे पाटन के राजा राव भोपाजी तँवर द्वारा कोटपुतली के पास कुलदेवी का मंदिर बनवाने का विवरण मिलता है जहाँ पहले अग्यातवास के दोरान पांडवो ने योगमाया का मंदिर बनाया था।
यह मंदिर अरावली श्रंखला की पहाड़ी पर स्थित है ! मंदिर परिसर मैं उपलब्ध शिलालेख के आधार पर 650 फुट ऊँचा मंदिर एक छत्री(चबूतरा)मैं स्थित है! इस छत्री के चार दरवाजे है उसके अन्दर माता जी विराजमान है! छत्री के बाद का मंदिर 7 भवनों वाला है! मंदिर का मुख्या मार्ग दक्षिण मैं व माता का नीज मंदिर का द्वार पश्चिम मैं हैं! इस मंदिर मैं माता का 8 भुजावाला आदमकद स्वरुप स्थित है! स्थम्भो व दीवारो पर वाम मार्गियों व तांत्रिको की मूर्तियाँ की मोजुदगी इनका प्रभाव दर्शाती है! मदिर मैं माता को पांडवो द्वारा सतापित के साक्ष्य छत्री मैं स्थित हैं! मदिर की परिक्रमा मैं चामुंडा की मूर्ति है जो आज भीसुरापान करती है! मंदिर की छत्री मैं जो लाल पत्थर है वो 5 टन का है! मंदिर पीली मिट्टी से बना हुआ है पर कई से भी चूता नहीं है! मंदिर तक पहुचने के लिए 282 सीढियाँ है! इनके मध्य मैं माता की पवन चरण के निशान हैं! यहाँ 52 भेरव व 64 योग्नियाँ है ! सरुन्द देवी की पहाड़ी से सोता नदी बहती है जिसके पास एशिया प्रसिद्ध बावड़ी है जो बिना चुने सीमेन्ट से बनी हुए है ! यह दवापर युग मैं पाङ्वो द्वारा 2500 चट्टानों से बनाई गई थी।
योग माया का मंदिर सरूण्ड गांव में स्थित होने से इसे सरूण्ड माता भी बोलते हैं।
तंवरो के बडवाजी(जागाजी) के अनुसार तंवरो की कुलदेवी चिलाय माता है।
जाटू तंवरो ओर बडवो की बही के अनुसार तँवरो की कुलदेवी ने चिल पक्षी का रूप धारण कर राव धोतजी के पुत्र जयरथजी के पुत्र जाटू सिंहजी की बाल अवस्था में रक्षा की थी जिसके कारण माँ जोगमाया को चिलाय माता बोलने लगे।
इतिहास कारो के अनुसार कुलदेवी का वाहन चिल पक्षी के होने कारण यह चिल, चिलाय माता कहलाई। राजस्थान के तंवर चिलाय माता कोही कुलदेवी मानते हैं। लेकिन चिलाय माता के नाम से कोई भी पुराना मंदिर नहीं मिलता है।
दो मदिरो का विवरण मिलता है जो चिलाय माता के मदिर है। जाटू तंवर और पाटन का इतिहास पढने पर पता चलता है कि 12 वी सताब्दी मे जाटू तंवरो ने खुडाना में चिलाय माता का मंदिर बनाया था ओर माता द्वारा मन्सा पुर्ण करने के कारण आज उसे मन्सादेवी के नाम से जानते हैं।
एक और मदिर का विवरण मिलता है जो पाटन के राजाओ ने 14 वी शताब्दी में गुडगाँव मे चिलाय माता का मंदिर बनवाया और ब्राह्मणों को माता की सेवा के लिए नियुक्त किया। लेकिन 17 वी शताब्दी के बाद पाटन के राजा द्वारा माता के लिए सेवा जानी बन्द हो गयी ओर आज स्थानीय लोग चिलाय माता को शीतला माता समझ कर शीतला माता के रूप में पुजते है।
विभिन्न स्त्रोतों और पांडवो या तंवरो द्वारा बनवाये गये मंदिर से यही प्रतीत होता है कि तोमर (तँवर) की कुलदेवी माँ योगमाया है जो बाद में योगेश्वरी कहलाई। माता का वाहन चिल पक्षी होने के कारण और कुलदेवी ने चिल का रूप धारण कर जाटू सिंहजी की बाल अवस्था में रक्षा की थी जिसके कारण यह आज चिलाय माता के नाम से जानी जाती है।

जय माँ बायण
जय माँ चिलाय

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